24.6.05

अहिंसा के बिरवे

चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
बहुत लहलही आज हिंसा की फसलें
प्रदूषित हुई हैं धरा ही हवाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ॥
बहुत वक्त़ बीता कि जब इस चमन में
अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
थे सोये हुए भाव जन–मन में गहरे
पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे।
बने वृक्ष वट–वृक्ष, छाया घनेरी
धरा जिसको महसूसती आज तक है
उठीं वक्त़ की आँधियाँ कुछ विषैली
नियति जिसको महसूसती आज तक है।
नहीं रख सके हम सुरक्षित धरोहर
अभी वक्त़ है, हम अभी चेत जाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
नहीं काम हिंसा से चलता है भाई
सदा अंत इसका रहा दुःखदाई
महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर
अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
रहे शुद्ध-मन, शुद्ध–तन, शुद्ध–चिंतन
अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा
सुखद फिर भी होती अहिंसा की रोटी
नई इस सदी में, सघन त्रासदी में
नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
***
-डॉ॰ जगदीश व्योम
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